विभाजन पीड़ितों की केस स्टडी

'क्या वो मुझे पुकार रहे थे?’ - तारिक मलिक

मैं 1947 में 10 साल का था। हम जम्मू-कश्मीर में बड़े आराम की जिंदगी जी रहे थे। लेकिन जब पाकिस्तान बना तो हमारा सबकुछ लुट गया। साजो सामान तो वापस आ सकता है लेकिन जिंदगियां नहीं। मेरे पिता एक बुद्धिजीवी और शिक्षाविद थे। उनका कत्ल कर दिया गया था। हम आठ लोग गर्मियों के कुछ कपड़े पहने पाकिस्तान चले गए थे। जब सर्दियां आईं तो हमारे पास ठंढ से बचने के लिए कपड़े नहीं थे। सिर के ऊपर छत तक नहीं थी। जब अगली गर्मियां आईं तो मेरा पैर बढ़ चुका था। जूते छोटे पड़ रहे थे। मुझे चिलचिलाती जमीन पर नंगे पांव चलना पड़ता था। आज भी कई बार मेरे पैरों को वो जलन महसूस होती है।

मुझे आज भी अपने पिता की हत्या के बुरे सपने आते हैं। एक चिकित्सक के तौर पर कई बार मैं सोचता हूं कि इसका अंत कैसे होगा। क्या उन्हें दर्द हुआ होगा, क्या उन्हें ठंढ लगी होगी, क्या वो प्यासे रहे होंगे, क्या वो मुझे पुकार रहे थे।

'मेरे पिता याद करते थे कि वो एक मुस्लिम परिवार के घर में छिपे थे' - आलोक ए. खुराना

मेरे पिता आनंद बी खुराना विभाजन के वक्त करीब 10 साल के थे। उनके पिता एक सिविल इंजीनियर थे। मेरे दादा, पिता और उनके पांच भाईयों का पूरा परिवार उसी समय के आस पास एक नए घर में गया था। मध्यवर्गीय परिवारों के रहने लायक वो घर उन लोगों ने हाल ही में बनवाया था।

हमारे परिवार की सबसे लड़की की उन्हीं दिनों सगाई हुई थी। जिस परिवार में उसकी सगाई हुई थी वो बरसों बरस से पंजाब में रहा था। वे किसी और जगह पर रहने को राजी नहीं थे। मेरे स्वर्गीय पिता जी बताते थे कि इस बात की चर्चा तो सभी ने सुनी थी कि भारत के दो हिस्से हो जाएंगे- पाकिस्तान और हिंदुस्तान। लेकिन कुछ लोगों को लगा कि ये तुरंत ही होने जा रहा है।

वो आधी रात का समय था मेरा पूरा परिवार विस्थापित हो गया। उनका घर और जमीन पाकिस्तान की तरफ चले गए। कुछ ही दिनों में ये बात बिल्कुल साफ हो गई थी कि हिंदू परिवार वहां किसी हाल में सुरक्षित नहीं है। मुझे पूरी वजह नहीं पता लेकिन हम उन परिवारों में से नहीं थे जो तुरंत वहां से निकल गए। इस कोशिश में कई लोगों की जान तक चली गई। मेरे पिता का परिवार अगले कुछ महीने के लिए वहीं छिप गया। मेरे पिता याद करते थे कि वे एक मुस्लिम परिवार के घर में छिपे थे। वो मुस्लिम मेरे दादा के यहां काम किया करते थे। बाद में हालात जब थोड़े सामान्य हुए तो परिवार हिंदुस्तान आया और यहां बसा। शुरूआती दिनों में उन्हें दिल्ली में शरणार्थियों के कैंप में रहना पड़ा। मेरे दादा ने अपनी पहले जैसी ही एक नई नौकरी खोज ली। उनकी पूरी संपत्ति, वो नया घर सब चला गया लेकिन वे फिर भी ऊपरवाले के शुक्रगुजार थे कि जिंदगियां बच गईं। जो एक शख्स लापता था वो उनकी सबसे बड़ी बेटी का मंगेतर था। लेकिन करीब एक साल बाद उनकी बेटी ने अपने मंगेतर को दिल्ली में एक रेलवे स्टेशन पर खोज लिया। दोनों ने बाद में शादी कर ली। उनके कई बच्चे थे।

'हमने भारी भारी बर्तन उठाए, ये सोचकर कि पीतल चांदी से महंगा होता है' - मधुश्री घोष

मेरे माता पिता कम उम्र के ही थे जब वे उस जगह से भारत आए जो अब बांग्लादेश है। बाबा अपने जीते जी पूर्वी पाकिस्तान को अपना घर कहते थे। 2004 में वो नहीं रहे। उनका परिवार, ढाका के जमींदार अपने सामान के साथ वहां से भागे। इसमें पीतल के बर्तन, बड़ी बड़ी कटोरी और तश्तरियां थीं। वो कहा करते थे- हमें कभी किसी की जरूरत ही नहीं पड़ी इसलिए हमें पैसे की कीमत का अंदाजा ही नहीं था। हमने भारी भारी बर्तन उठाए, ये सोचकर कि पीतल चांदी से महंगा होता है। हम बच्चे थे, हम क्या करते? बाबा जब बैंक की अपनी नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आए तो वो अपने बचपन के बाग बगीचे याद करते थे। वो कहते थे- हमारे यहा पत्ता गोभी, फूल गोभी, मटर, पालक, भिंडी सब कुछ उगता था। वो कहते थे हमारे यहां के कद्दू सूरज से भी बड़े होते थे। मैं उनकी सारी बात मान जाती थी। उन्होंने बांग्लादेश की जो जगह छोड़ी थी, वहां की हर जीत यहां से बेहतर होती थी। गुलाब अधिक खुशबुदार थे, बैंगन अधिक बैंगनी थे, मछलियां ज्यादा ताजी थीं। दिल्ली उसकी तुलना कभी नहीं कर सकती। मां तब 12 साल की थीं जब उनका परिवार बारिसाल छोड़कर कोलकाता आया। उन्होंने उस वक्त सबकुछ बेंच दिया था। इसमें मां की पसंदीदा स्कूल किताबें भी थीं। 2008 में निधन से पहले तक वो उसका शोक मनाया करती थीं। उन्हें इस बात का फक्र था कि उन्होंने किसी भी किताब में पेन या पेंसिल से कोई चिह्न नहीं लगाया था। वे बिल्कुल नई जैसी थीं। मां कहती थीं- इसीलिए ठाकुर दा उन्हें अच्छी कीमत पर बेंच पाए और उस पैसे ने हमें वहां से भागने में मदद की।

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